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Friday, 2 October 2015

सा विद्या या विमुक्तये

प्रश्न—विद्यार्थी किसे कहते हैं ?
उत्तर—जो केवल विद्याध्ययन करना चाहता है, उसको विद्यार्थी करते हैं। ‘विद्यार्थी’ शब्द का अर्थ है—विद्या का अर्थी अर्थात् केवल विद्या चाहने वाला। कौन-सी विद्या ? विद्याओं में श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या—‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्’ (गीता 10/32)

प्रश्न- विद्या का वास्तविक स्वरूप क्या है ?
उत्तर —कुछ भी जानना विद्या है। अनेक शास्त्रों का, कला-कौशलों का, भाषाओं आदि का ज्ञान विद्या है। वास्तव में विद्या वही है, जिससे जानना बाकी न रहे, जीवकी मुक्ति हो जाय—‘सा विद्या या विमुक्तये’ (विष्णुपुराण 1/19/41)। अगर जानना बाकी रह गया तो वह विद्या क्या हुई !

एक शब्दब्रह्म (वेद) है और एक परब्रह्म (परमात्मतत्त्व) है अगर शब्दब्रह्म को जान लिया, पर परब्रह्म को नहीं जाना तो केवल परिश्रम ही हुआ—



शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि।

श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः।।
(श्रीमद्भा. 11/11/18)



अतः परमात्मतत्त्व को जानना ही मुख्य विद्या है और इसी में मनुष्यजीवन की सफलता है।
जिससे जीविका का उपार्जन हो, नौकरी मिले, वह भी विद्या है, पर वह विद्या परमात्मप्राप्ति में सहायक नहीं होती, प्रत्युत कहीं-कहीं उस विद्या का अभिमान होने से वह विद्या परमात्मप्राप्ति में बाधक हो जाती है। विद्या के अभिमानी को कोई ब्रह्मनिष्ठ महात्मा मिल जाय तो वह तर्क करके उनकी बात को काट देगा, उनको चुप करा देगा, जिससे वह वास्तविक लाभ से वञ्चित रह जायगा। अतः कहा गया है—



षडंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या

कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति । 
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् 





‘छहों अंगोंसहित वेद और शास्त्रों को पढ़ा हो, सुन्दर गद्य और पद्ममय काव्य-रचना करता हो, पर यदि श्री गुरुदेव के चरणों में मन नहीं लगा तो उन सभी से क्या लाभ है ?’

प्रश्न—विद्या ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है ?

उत्तर—विद्याके बिना मनुष्यजन्म सार्थक नहीं होगा, प्रत्युत मनुष्यजन्म और पशुजन्म एक समान ही होंगे। अतः विद्या की अत्यन्त आवश्यकता है।

कोई भी आरम्भ होता है तो वह किसी उद्देश्य को लेकर ही होता है। मनुष्यजन्म केवल दुःखों का अत्यन्ताभाव और परमानन्द की प्राप्ति के उद्देश्य से ही मिला है। इस उद्देश्य की सिद्धि अगर नहीं हुई तो मनुष्यता नहीं है। जैसे पशु-पक्षी आदि भोगयोनि है, ऐसे ही परमात्मप्राप्ति के बिना मनुष्य भी भोगयोनि ही है। कारण कि परमात्मप्राप्ति का अवसर प्राप्त करके भी मनुष्य केवल भोगों में लगा रहा तो वह भोगयोनि ही हुई। और उसका पतन ही हुआ— ‘तमारुढच्युतं विदुः’ (श्रीमद्भा. 11/7/74)।
यदि मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों में जाने के लिये, बार-बार जन्मने-मरने के लिए ही हुआ तो फिर उसमें मनुष्यता क्या हुई ? अतः मनुष्य जन्म में विद्यार्थी को परमात्मा की प्राप्ति कर लेनी चाहिये, जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं—





यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।
 (गीता 6/22)



‘जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर मनुष्य बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता।’

वास्तव में ब्रह्मविद्या ही विद्या है, अन्य विद्या तो अविद्या है। कारण कि ब्रह्मविद्या के प्राप्त होने पर कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्य (लौकिक) विद्याएँ नहीं पढ़नी चाहिये। अन्य विद्याएँ भी पढ़नी चाहिये। अन्य भाषाओं, लिपियों आदि का ज्ञान-सम्पादन करना उचित है, पर उनमें ही लिप्त रहना उचित नहीं है; क्योंकि उनमें ही लिप्त रहने से मनुष्य जन्म निरर्थक चला जायगा। दूसरी बात, लौकिक विद्याओं को पढ़ने से ‘मैं पढ़ा-लिखा हूँ’—ऐसा एक अभिमान पैदा हो जाएगा, जिससे बन्धन और दृढ़ हो जायगा।



शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा
यस्तु क्रियावान्पुरुषः स विद्वान्।



शास्त्रों को पढ़कर भी लोग मूर्ख बने रहते हैं। वास्तव में विद्वान वही है, जो शास्त्र के अनुकूल आचरण करता है।’

मनुष्य जन्म का उद्देश्य है—परमात्मतत्त्व की प्राप्ति करना और उसका साधन है—संसार की सेवा। अतः लौकिक विद्या, धन, पद आदि का उपयोगी संसार की सेवा में ही है। ये संसार की सेवा में ही काम आ सकते हैं, परमात्मप्राप्ति में नहीं, क्योंकि परमात्मप्राप्ति लौकिक विद्या के अधीन नहीं है। जिसके पास लौकिक विद्या आदि है, उसी पर संसार की सेवा करने की जिम्मेवारी है। मालपर ही जकात लगती है और इन्कम पर ही टैक्स लगता है। माल नहीं है तो जकात कि बात की ? इन्कम नहीं तो टैक्स किस बात का ?

लौकिक विद्या, धन, पद आदि को लेकर संसार में मनुष्य की जो प्रशंसा होती है, वह एक तरह से मनुष्य की निन्दा ही है। तात्पर्य है कि महिमा तो लौकिक विद्या आदि की ही हुई, खुदकी तो निन्दा ही है। अतः जो लौकिक विद्या आदि से अपने को बड़ा मानता है, वह वास्तव में अपने को छोटा ही बनाता है।


बापूजी के मित्र संत रामसुखदास महाराज के संकलन से उधृत 

ॐ ॐ गुरूजी ॐ 

brahm vidya self realization india asaram bapu god


Incidently my institute's motto is ज्ञानम् परमम् ध्येयम् jñānaṃ paramaṃ dhyeyam / ज्ञानं परमं ध्येयम् / GYaanaM paramaM dhyeyam (knowledge is the supreme goal).

I wonder how many inside IIT B know which gyan is being talked about .
hahahaha  sadhak has the last laugh !


बाह्य वस्तुओं का गहन ज्ञान ‘विज्ञान है और अंतस्तत्त्व-विषयक गहरा ज्ञान ‘तत्त्वज्ञान है ।


तीन प्रकार की विद्याएँ

तीन प्रकार की विद्याएँ होती हैं-
1.      लौकिक विद्याः जिसे हम स्कूल कालेज में पढ़ते हैं। यह विद्या केवल पेट भरने की विद्या है।
2.      योगविद्याः इस लोक और परलोक के रहस्य जानने कि विद्या।
3.      आत्मविद्याः आत्मा-परमात्मा की विद्या, परमात्मा के साक्षात्कार की विद्या, परमात्मा के साथ  एकता की विद्या।
लौकिक विद्या शारीरिक सुविधा के उपयोग में आती है। योगविद्या से इस लोक एवं परलोक के रहस्य खुलने लगते हैं एवं आत्मविद्या से परमात्मा के साथ एकता हो जाती है। जीवन में इन तीनों ही विद्याओं की प्राप्ति होनी चाहिए। लौकिक विद्या प्राप्त कर ली, किन्तु योगविद्या नहीं है तो जीवन में लौकिक चीजें बहुत मिलेंगी किन्तु भीतर शांति नहीं होगी। अशांति होगी, दुराचार होगा। लौकिक विद्या को पाकर थोड़ा कुछ सीख लिया, यहाँ तक कि बम बनाना सीख गये, फिर भी हृदय में अशांति की आग जलती रहेगी। अतः लौकिक विद्या के साथ आत्मविद्या अत्यावश्यक है।
जो लोग योगविद्या एवं आत्मविद्या का अभ्यास करते हैं, सुबह के समय थोड़ा योग का अभ्यास करते हैं, वे लोग लौकिक विद्या में भी शीघ्रता से सफल होते हैं। योग विद्या एवं ब्रह्मविद्या का थोड़ा सा अभ्यास करें तो लौकिक विद्या उनको आसानी से आ जाती है। लौकिक विद्या के अच्छे-अच्छे रहस्य वे लोग खोज सकते हैं।
जो वैज्ञानिक हैं वे भी जाने-अनजाने थोड़ा योगविद्या की शरण जाते हैं। रीसर्च करते-करते एकाग्र हो जाते हैं, तन्मय हो जाते हैं, तब कोई रहस्य उनके हाथ लगता है। वे ही वैज्ञानिक अगर योगी होकर रीसर्च करें तो आध्यात्मिक रहस्य उनके हाथ लग सकते है। योगियों ने ऐसे-ऐसे रीसर्च कर रखे हैं जिनका बयान करना भी आज के आदमी के वश की बात नहीं है।
नाभि केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित किया जाये तो शरीर की सम्पूर्ण रचना ज्यों की त्यों दिखती है। योगियों ने शरीर को काटकूट कर (ऑपरेशन करके) भीतर नहीं देखा। वरन् उन्होंने स्थूल भौतिक शरीर को भी ध्यान की विधि से जाना है। यदि नाभि केन्द्र पर ध्यान स्थित करो तो तुम्हारे शरीर की छोटी-मोटी सब नाड़ियों की अदभुत रचना का पता चलेगा। योगियों ने ही खोज करके बताया है कि नाभि से कन्धे तक 72664 नाड़ियाँ हैं। ऐहिक विद्या से जिन केन्द्रों के दर्शन नहीं होते उन मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा और सहस्रार चक्रों की खोज योगविद्या द्वारा ही हुई है। एक-एक चक्र की क्या-क्या विशेषताएँ हैं यह भी योगविद्या से ही खोजा गया है। उन चक्रों का रूपान्तर कैसे किया जाये यह भी योगविद्या के द्वारा ही जाना गया है।
यदि मूलाधार केन्द्र का रूपान्तरण होता है तो काम, राम में बदल जाता है। व्यक्ति की दृष्टि विशाल हो जाती है। उसके कार्य 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' होने लगते हैं। ऐसा व्यक्ति यशस्वी हो जाता है। उसके पदचिह्नों पर चलने के लिए कई लोग तैयार होते हैं। जैसे – महात्मा गाँधी का काम केन्द्र राम में रूपान्तरित हुआ तो वे विश्वविख्यात हो गये।
दूसरा केन्द्र है स्वाधिष्ठान। उसमें भय, घृणा, हिंसा और स्पर्धा रहती है। यह दूसरा केन्द्र यदि रूपान्तरित होता है तो भय की जगह पर निर्भयता का, हिंसा की जगह अहिंसा का, घृणा की जगह प्रेम का और स्पर्धा की जगह समता का जन्म होता है। व्यक्ति दूसरों के लिए बड़ा प्यारा हो जाता है। अपने लिए एवं औरों के लिए बड़े काम का हो जाता है।
अपने शरीर में ऐसे सात केन्द्र हैं। इसकी खोज योगविद्या द्वारा ही हुई है। लौकिक विद्या ने इन केन्द्रों की खोज नहीं की। ऐसे ही, सृष्टि का आधार क्या है ? सृष्टिकर्त्ता से कैसे मिलें ? जीते जी मुक्ति का अनुभव कैसे हो ? यह खोज ब्रह्मविद्या के द्वारा ही हुई है।
लौकिक विद्या, योगविद्या और ब्रह्मविद्या। हम लोग लौकिक विद्या में तो थोड़ा-बहुत आगे बढ़ गये हैं लेकिन योग विद्या का ज्ञान नहीं है अतः व्यक्ति का शरीर जितना तंदुरूस्त होना चाहिए और मन जितना प्रसन्न एवं समझयुक्त होना चाहिए, वह नहीं है। इसीलिये चलचित्र देखकर कई ग्रेज्युएट व्यक्ति तक आत्महत्या कर लेते हैं। 'मरते हैं एक दूजे के लिए' फिल्म देखकर कई युवान-युवतियों ने आत्महत्या कर ली।
ऐहिक या लौकिक विद्या के साथ योग विद्या का सहारा नहीं है तो लौकिक विद्यावाला भी करप्शन (भ्रष्टाचार) करेगा। लड़ाई-झगड़े करके पेटपालु कुत्तों की नाई अपना जीवन बिताएगा। ऐहिक विद्या की यह एक बड़ी लाचारी है कि उसके होने के बावजूद भी जीवन में कोई सुख-शांति नहीं होती, शरीर का स्वास्थ्य और मन की दृढ़ता नहीं होती। आजकल की ऐहिक विद्या ऐसी हो गयी है कि विद्यार्थी गुलाम होकर ही युनिवर्सिटी से निकलते हैं। सर्टिफिकेट मिलने के बाद सर्विस की खोज में लगे रहते हैं। सर्विस मिलने पर कहते हैं-
'I am the best servant of Indian Government..... I am the best servant of British Government.'
आजकल की विद्या मनुष्य को Servant (नौकर) बनाती है। इन्द्रियों एवं मन का गुलाम बनाती है। ऐहिक विद्या मनुष्य को अहंकार का गुलाम बनाती है। ऐहिक विद्या मनुष्य को ईर्ष्या और स्पर्धा से नहीं छुड़ाती, काम-क्रोध की चोटों से नहीं बचाती। ऐहिक विद्या इन्सान को लोक-लोकान्तर की गतिविधियों का ज्ञान नहीं कराती। ऐहिक विद्या आदमी को पेट पालने के साधन प्रदान करती है, शरीर की सुविधाएँ बढ़ाने में मदद करती है। मनुष्य शरीर की सुविधाओं का जितना अधिक उपयोग करता है उतनी ही लाचारी उसके चित्त में घुस जाती है। शारीरिक सुविधाएँ जितनी भोगी जाती हैं और योगविद्या की तरफ जितनी लापरवाही बर्ती जाती है उतना ही मनुष्य अशांत होता जाता है। पाश्चात्य जगत् ने ऐहिक विद्या में, तकनीक के जगत में खूब तरक्की की किन्तु साथ ही साथ अशान्ति भी उतनी ही बढ़ी।
ऐहिक विद्या में अगर योग का संपुट दिया जाये तो मनुष्य ओजस्वी तेजस्वी बनता है। ऐहिक विद्या का आदर करना चाहिए किन्तु योगविद्या और आत्मविद्या को भूलकर ऐहिक विद्या में ही पूरी तरह से लिप्त हो जाना मानो अपने ही जीवन का अनादर करना है। जिसने अपने जीवन का ही अनादर कर दिया वह जीवनदाता का आदर कैसे कर सकता है ? जो अपने जीवन का एवं जीवनदाता का आदर नहीं कर सकता वह पूर्ण सुखी भी कैसे रह सकता है ?
ऑटोरिक्शा में तीन पहिये होते हैं। आगेवाला पहिया ठीक है, पीछे एक पहिया नहीं है और आगे वाला स्टीयरिंग नहीं है तो ऑटोरिक्शे की बॉडी (ढाँचा) दिखेगी, लेकिन उससे यात्रा नहीं होगी। ऐसे ही जीवन में ऐहिक विद्या तो हो, लेकिन उसके साथ योगविद्यारूपी पहिया न हो और ब्रह्मविद्यारूपी स्टीयरिंग न हो तो फिर मनुष्य अविद्या में ही उत्पन्न होकर, अविद्या में ही जीकर, अंत में अविद्या में ही मर जाता है। जैसे व्हील और स्टीयरिंग रहित ऑटोरिक्शा वहीं का वहीं पड़ा रहता है वैसे ही मनुष्य अविद्या में ही पड़ा रह जाता है, माया में ही पड़ा रह जाता है। माताओं के गर्भों में उल्टा लटकता ही रहता है, जन्म मरण के चक्र में फँसता ही रहता है क्योंकि ऐहिक विद्या के साथ-साथ ब्रह्मविद्या और योग विद्या नहीं मिली।
ऐहिक विद्या को पाने का तो एक निश्चित समय होता है किन्तु योग विद्या को, ब्रह्मविद्या को पाने के लिए दस-पन्द्रह या बीस वर्ष की अवधि नहीं होती। ऐहिक विद्या के साथ-साथ योगविद्या और ब्रह्मविद्या चलनी ही चाहिए। यदि मनुष्य प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में (साढ़े तीन बजे) उठकर योगविद्या का, ध्यान का अभ्यास करे तो उस समय कया हुआ ध्यान बहुत लाभ करता है।
जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में जाग जाते हैं वे बड़े तेजस्वी होते हैं। जीवन की शक्तियाँ ह्रास होने का और स्वप्नदोष होने का समय प्रायः ब्रह्ममुहूर्त के बाद का ही होता है। जो ब्रह्ममुहूर्त में जाग जाता है उसके ओज की रक्षा होती है। जो ब्रह्ममुहूर्त में जगकर ध्यान के अभ्यास में संलग्न हो जाता है उसको जल्दी ध्यान लग जाता है। जिसका ध्यान लगने लगता है उसके बल, ओज, बुद्धि एवं योगसामर्थ्य बढ़ते हैं और आत्मज्ञान का मार्ग उसके लिए खुला हो जाता है।
सूर्योदय से दो पाँच मिनट पहले और दो पाँच मिनट बाद का समय संधिकाल है। इस समय एकाग्र होने में बड़ी मदद मिलती है। यदि ब्रह्ममुहूर्त में उठकर ध्यान करे, सूर्योदय के समय ध्यान करे, ब्रह्मविद्या का अभ्यास करे तो.... शिक्षकों से थोड़ी लौकिक विद्या तो सीखे किन्तु दूसरी विद्या उसके अंदर से ही प्रगट होने लगेगी। जो योगविद्या और ब्रह्मविद्या में आगे बढ़ते हैं उनको लौकिक विद्या बड़ी आसानी से प्राप्त होती है।
संत तुकाराम लौकिक विद्या पढ़ने में इतना समय न दे सके थे किन्तु उनके द्वारा गाये गये अभंग बम्बई यूनिवर्सिटी के एम. ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाये जाते हैं।
संत एकनाथजी लौकिक विद्या भी पढ़े थे, योगविद्या भी पढ़े थे। विवेकानंद लौकिक विद्या पढ़े थे, योगविद्या भी पढ़े थे। उन्होंने आत्मविद्या का ज्ञान भी प्राप्त किया था। जो लौकिक विद्या सीखा है और उसे योगविद्या मिल जाये तो उसके जीवन में चार चाँद लग जाते हैं। उसके द्वारा बहुतों का हित हो सकता है।
योगविद्या एक बलप्रद विद्या है। वह बल अहंकार बढ़ाने वाला नहीं, वरन् जीवन के वास्तविक रहस्यों को प्रगटाने वाला और सदा सुखी रहने के काम आने वाला है। अगर मनुष्य के पास योग बल नहीं है तो फिर उसके पास धनबल, सत्ताबल और बाहुबल हो तो भी वह उस बल का क्या कर डाले ? कोई पता नहीं। सत्ता और धन का कैसा उपयोग करे ? कोई पता नहीं। जीवन में यदि योगविद्या और ब्रह्मविद्या साथ में हो तो...... भगवान राम के पास लौकिक विद्या के साथ योगविद्या और ब्रह्मविद्या थी तो हजारों विघ्न-बाधाओं के बीच भी उनका जीवन बड़ी शांति, बड़े आनंद और बड़े सुख से बीता, बड़ी समता से व्यतीत हुआ। श्रीकृष्ण के जीवन में लौकिक विद्या, योगविद्या और ब्रह्मविद्या तीनों थीं। उनके जीवन में भी हजारों विघ्न-बाधाएँ आयीं लेकिन वे सदा मुस्कुराते रहे।
जितने अंश में योगविद्या और ब्रह्मविद्या है, उतने अंश में ऐहिक विद्या भी शोभा देती है। किन्तु केवल लौकिक विद्या है, योगविद्या और ब्रह्मविद्या नहीं है तो फिर ऐहिक विद्या के प्रमाणपत्र मिल जाते हैं। उसे कुछ धन या कुछ सत्ता मिल जाती है किन्तु गहराई से देखो त भीतर धुंधलापन ही रहता है। भीतर कोई तसल्ली नहीं रहती, कोई तृप्ति नहीं रहती, कोई शांति नहीं रहती। भविष्य कैसा होगा ? कोई पता नहीं। आत्मा क्या है ? कोई पता नहीं। मोक्ष क्या है ? कोई पता नहीं। जीवन अज्ञान में ही बीत जाता है।
अज्ञान में जो ज्ञान होता है वह भी अज्ञान का रूपान्तर होता है। जैसे, रस्सी में साँप दिखा तो कोई बोलता है - 'यह साँप है।' दूसरा बोलता है - 'यह साँप नहीं यह तो दरार है।' तीसरा बोलता है -'यह दरार नहीं, यह तो पानी का बहाव है।' चौथा बोलता है - 'यह मरा हुआ साँप है।' कोई बोलता है - 'अच्छा, जाऊँ, जरा देखूँ।' वह जाता तो है किन्तु दोनों तरफ भागने की जगह खोजता है। अज्ञान में ज्ञान हुआ है। रस्सी में साँप का ज्ञान हुआ है। ऐहिक विद्या अविद्या में ही मिलती है। अज्ञान दशा में ही ऐहिक शिक्षा का समावेश होता है।
आत्मा का ज्ञान नहीं है। आत्मा-परमात्मा क्या है ? उसका ज्ञान नहीं है और हम लौकिक शिक्षा पाते हैं तो अज्ञान दशा में जो कुछ जाना जाता है, वह अज्ञान के अन्तर्गत ही होता है। हकीकत में जानकारी मिलती है बुद्धि को और समझते हैं कि हम जानते हैं। हम डॉक्टर हो गये तो बुद्धि तक, वकील हो गये तो बुद्धि तक, उद्योगपति हो गये तो बुद्धि तक। लेकिन बुद्धि के पार की जो विद्या है वह है ब्रह्मविद्या।
जहाँ से विश्व की तमाम बुद्धियों को, दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों की बुद्धियों को, बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की, साधु-संतों की बुद्धियों को प्रकाश मिलता है उस प्रकाश के ज्ञान को ब्रह्मज्ञान कहते हैं। जहाँ से विश्व को अनादिकाल से ज्ञान मिलता आ रहा है.... चतुरों की चतुराई, विद्वानों की विद्या संभालने की योग्यता, प्रेम, आनंद, साहस, निर्भयता, शक्ति, सफलता, इस लोक और परलोक के रहस्यों का उदघाटन करने की क्षमता..... ये सब जहाँ से मिलता आया है, मिल रहा है और मिलता रहेगा एवं एक तृण जितनी भी जिसमें कमी नहीं हुई, उसे कहते हैं ब्रह्म परमात्मा। ब्रह्म-परमात्मा को, आत्मा को जानने की विद्या को ही ब्रह्मविद्या कहते हैं।
ब्रह्मविद्या ब्रह्ममुहूर्त में बड़ी आसानी से फलती है। उस समय ध्यान करने से, ब्रह्मविद्या का अभ्यास करने से, मनुष्य बड़ी आसानी से प्रगति कर सकता है। सुबह का समय ध्यान का समय है। व्यक्ति जितने अंश में ध्यान में सफल होता है उतनी ही लौकिक विद्या में भी अच्छी प्रगति कर सकता है।
लौकिक विद्या तो जरूर पढ़ो, किन्तु साथ ही साथ योग विद्या और आत्मविद्या का अभ्यास भी करोगे तो जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकोगे। फिर महान् बनना तुम्हारे लिए अत्यंत सहज एवं सरल हो जायेगा।


वर्चोदा ऽ असिवर्चो मे देहि  - शुक्लयजुर्वेद - ४.३
हे परमेश्वर ! आप विद्या व ब्रह्मतेज -प्रदाता हैं म मुझे भी विज्ञान व ब्रह्मतेज प्रदान  कीजिए 

2 comments:

  1. I guess today these golden words have become just slogans for institutions. What we all learn today in schools in certainly not the knowledge Vedas talked about. Yet, very interesting from student's viewpoints. Thanks for the blog post.

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