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Saturday 15 August 2015

भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी की मिठाई


पूज्य बापू जी का सदगुरु संस्मरण
मेरे गुरु जी का आश्रम नैनिताल में था। एक बार गुरु जी के साथ सामान लेकर एक कुली आश्रम में आया।
गुरु जी ने कहाः "अरे आशाराम !"
मैंने कहाः "जी साँईं !"
"रस्सी लाओ। इसको बाँधना है।"
"जी साँईं लाता हूँ।"
गुरु जी अपनी कुटी में गये और मैं रस्सी लाने का नाटक करने लगा। वह कुली तो घबरा गया। जो दो रूपये लेने को बोल रहा था, वह रुपये लिए बिना ही चले जाने का विचार करने लगा। मैंने उसे रोका और कहाः "अरे, खड़ा रहा।"
कुली ने पूछाः "भाई ! क्या बात है ?" मैंने कहाः "अरे भाई ! खड़ा रहा। गुरु जी ने बाँधने की आज्ञा दी है।"
इतने में गुरु जी आये और कुली से कहने लगेः "इधर आ... इधर आ ! ले यह मिठाई। खाता है कि नहीं ? नहीं तो वह आशाराम तुझे बाँध देगा।"
उसने तो जल्दी-जल्दी मिठाई खाना शुरु कर दिया। साँईं बोलेः "खा, चबा-चबाकर खा। खाना जानता है कि नहीं ?"
उसने कहाः "बाबा जी ! जानता हूँ।"
साँईं ने कहाः "अरे आशाराम ! यह तो खाना जानता है। इसे बाँधना नहीं।"
मैंने कहाः "जी साँईं !"
साँईं ने पुनः कहाः "आशाराम ! यह तो मिठाई खाना जानता है। चबा-चबाकर खाता है।" फिर उसकी तरफ देखकर बोलेः "यह मिठाई घर ले जा। दो दिन तक थोडी-थोड़ी खाना। मिठाई कैसी लगती है ?"कुली ने कहाः "बाबाजी ! मीठी लगती है।" साँईं बोलेः "हाँ... लीलाशाह की मिठाई है। सुबह में भी मीठी और शाम को भी मीठी, दिन को भी मीठी और रात को भी मीठी। लीलाशाहजी की मिठाई जब खाओ तब मीठी।"कुली भले अपने ढंग से समझा होगा परंतु हम तो समझ रहे थे कि पूज्य श्री लीलाशाहजी बापू का ज्ञान जब विचारो तब मधुर-मधुर। ज्ञान भी मधुर और ज्ञान देने वाले भी मधुर तो ज्ञान लेने वाला मधुर क्यों न हो जाय ?
ज्यों केले के पात में, पात-पात में पात।
त्यों संतन की बात में, बात-बात में बात।।



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