यो गुरु स शिवः प्रोक्तो, यः शिवः स गुरुस्मृतः |
विकल्पं यस्तु कुर्वीत स नरो गुरुतल्पगः ||
जो गुरु हैं वे ही शिव हैं, जो शिव हैं वे ही गुरु हैं | दोनों में जो अन्तर मानता है वह गुरुपत्नीगमन करनेवाले के समान पापी है |
He who is the Guru is Shiva Himself, so declare the scriptures, and the fact that Shiva is the Guru, is reminded to us in all the Smritis. He, who makes any distinction between the two, is guilty of the crime of uniting with his own Guru’s wife.
Guru gita 1.18२०१३ में शिवरात्रि की रात मैं ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस से महाकुम्भ मेले में बापूजी के दर्शन करके आरहा था | ट्रेन में हिलने तक की जगह नहीं थी , सुबह ५ बजे कानपूर आया और शाम ५ बजे के खड़े खड़े तब लेटे |
२०१४ में आग्नेय शैल विज्ञान की सूक्ष्मदर्शी परीक्षा थी |
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Prayag Mahakumbh 2013 |
देवाधिदेव महादेव जी ने श्री वशिष्ठजी से कहाः 'हे मुनीश्वर ! इस जगत में ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र जो बड़े देवता हैं वे सब सर्वसत्ता रूप एक ही आत्मदेव से प्रकट हुए हैं। सबका मूल बीज वही देव है। जैसे अग्नि से चिनगारी और समुद्र से तरंगे उपजते हैं वैसे ही ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यन्त सभी उसी आत्मदेव से उपजते हैं और पुनः उसी में लीन होते हैं। सब प्रकाशों का प्रकाश और तत्त्ववेत्ताओं का पूज्य वही है।
हे मुनिशार्दूल ! जरा, मृत्यु, शोक और भय को मिटाने वाला आत्मदेव ही सबका सार और सबका आश्रय रूप है। उसका जो विराट रूप है वह कहता हूँ, सुनो। वह अनन्त है। परमाकाश उसकी ग्रीवा है। अनेक पाताल उसके चरण हैं। अनेक दिशाएँ उसकी भुजा हैं। सब प्रकाश उसके शास्त्र हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रूद्रादि देवता और जीव उसकी रोमावली है। जगज्जाल उसका विवृत है। काल उसका द्वारपाल है। अनन्त ब्रह्माण्ड उसकी देह के किसी कोण में स्थिति है। वही आत्मदेव शिवरूप सर्वदा और सबका कर्त्ता है, सब संकल्पों के अर्थ का फलदाता है। आत्मा सबके हृदय में स्थित है।
हे ऋषिवर्य ! अब मैं वह आत्म-पूजन कहता हूँ जो सर्वत्र पवित्र करने वाले को भी पवित्र करता है और सब तम और अज्ञान का नाश करता है। आत्मपूजन सब प्रकार से सर्वदा होता है और व्यवधान कभी नहीं पड़ता। उस सर्वात्मा शान्तरूप आत्मदेव का पूजन ध्यान है और ध्यान ही पूजन है। जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ-वहाँ लक्ष्य रूप आत्मा का ध्यान करो। सबका प्रकाशक आत्मा ही है। उसका पूजन दीपक से नहीं होता, न धूप, पुष्प, चन्दनलेप और केसर से होता है। अर्घ्य पाद्यादिक पूजा की सामग्रियों से भी उस देव का पूजन नहीं होता।
हे ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! एक अमृतरूपी जो बोध है, उससे उस देव का सजातीय प्रत्यय ध्यान करना ही उसका परम पूजन है। शुद्ध चिन्मात्र आत्मदेव अनुभव रूप है। सर्वदा और सब प्रकार उसका पूजन करो अर्थात् देखना, स्पर्श करना सूँघना, सुनना, बोलना, देना, लेना, चलना, बैठना इत्यादि जो कुछ क्रियाएँ हैं, सब चैतन्य साक्षी में अर्पण करो और उसी के परायण बनो। आत्मदेव का ध्यान करना ही धूप-दीप और पूजन की सामग्री है। ध्यान ही उस परमदेव को प्रसन्न करता है और उससे परमानन्द प्राप्त होता है। अन्य किसी प्रकार स वह देव प्राप्त नहीं होता।
हे मुनीश्वर ! मूढ़ भी इस प्रकार ध्यान से उस ईश्वर की पूजा करे तो त्रयोदश निमेष में जगत-दान के फल को पाता है। सत्रह निमेष के ध्यान से प्रभु को पूजे ते अश्वमेध यज्ञ के फल को पाता है। केवल ध्यान से आत्मा का एक घड़ी पर्यन्त पूजन करे तो राजसूय यज्ञ के फल को पाता है और जो दिनभर ध्यान करे तो असंख्य अमित फल पाता है। हे महर्षे ! यह परम योग है, यही परम क्रिया है और यही परम प्रयोजन है।
यथा प्राप्ति के समभाव में स्नान करके शुद्ध होकर ज्ञान स्वरूप आत्मदेव का पूजन करो। जो कुछ प्राप्त हो उसमें राग-द्वेष से रहित होना और सर्वदा साक्षी का रूप अनुभव में स्थित रहना ही उसका पूजन हो। जो नित्य, शुद्ध, बोधरूप और अद्वैत है उसको देखना और किसी में वृत्ति न लगाना ही उस देव का पूजन है। प्राण अपानरूपी रथ पर आरूढ़ जो हृदय में स्थित है उसका ज्ञान ही पूजन है।
आत्मदेव सब देहों में स्थित है तो भी आकाश-सा निर्लिप्त निर्मल है। सर्वदा सब पदार्थों का प्रकाशक, प्रत्यक् चैतन्य जो आत्मतत्त्व अपने हृदय स्थित है वही अपने फुरने से शीघ्र ही द्वैत की तरह हो जाता है। जो कुछ साकाररूप जगत देख पड़ता है, सो सब विराट आत्मा है। इससे अपने में इस प्रकार विराट की भावना करो कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मेरी देह है, हाथ, पाँव, नख, केश है। मैं ही प्रकाश रूप एक देव हूँ। नीति इच्छादिक मेरी शक्ति है। सब मेरी ही उपासना करते हैं। जैसे स्त्री श्रेष्ठ भर्ता की सेवा करती है, वैसे ही शक्ति मेरी उपासना करती है। मन मेरा द्वारपाल है जो त्रिलोकी का निवेदन करने वाला है। चिन्तन मेरा आने-जाने वाला प्रतिहारी है। नाना प्रकार के ज्ञान मेरे अंग के भूषण हैं। कर्मेन्द्रियाँ मेरे दास, ज्ञानेन्द्रियाँ मेरे गण हैं ऐसा मैं एक अनन्त आत्मा, अखण्डरूप, भेद से रहित अपने आप में स्थित परिपूर्ण हूँ।
इसी भावना से जो पूजा करता है वह परमात्मदेव को प्राप्त होता है। दीनता आदि उसके सब क्लेश नष्ट हो जाते हैं। उसे इष्ट की प्राप्ति में हर्ष और अनिष्ट की प्राप्ति में शोक नहीं उपजता। न तोष होता है न कोप होता है। वह विषय की प्राप्ति से तृप्ति नहीं मानता और न इसके वियोग से खेद मानता है। न अप्राप्त की वाञ्छा करता है न प्राप्त के त्याग की इच्छा करता है। सब पदार्थों मे उसका समभाव रहता है।
हे मुनीश्वर ! भीतर से आकाश-सा असंग रहना और बाहर से प्रकृति-आचार में रहना, किसी के संग का हृदय में स्पर्श न होने देना और सदा समभाव विज्ञान से पूर्ण रहना ही उस देव की उपासना है। जिसके हृदयरूपी आकाश से अज्ञानरूपी मेघ नष्ट हो गया है उसको स्वप्न में भी विकार नहीं होता।
हे महर्षे ! यह परम योग है। यही परम क्रिया है और यही परम प्रयोजन है। जो परम पूजा करता है वह परम पद को पाता है। उसको सब देव नमस्कार करते हैं और वह पुरुष सबका पूजनीय होता है।"
(श्री योगवाशिष्ठ महारामायण)
Significance Of The Physical appeance Of Lord Shiva
Shiva means the form of welfare & benediction. Lord Shiva is benedict towards the humanism, but also his physical form conveys a lesson to the society.3) Ganga springs out from the head of Lord Shiva. This means the wisdom springs out from the head of a learned & wise person. They have all those capabilities with which they resolve the critical & precarious issues very easily.
7) The other ornament wore by Shiva Ji is monstrous snakes.If a snake is alone, it is being killed but when it is with Shiva Ji, it is being worshiped. Similarly if ones only engage in the worldly activities then would definitely fail, instead if charges the mind with divine consciousness and resides in supreme-self and then perform the worldly actions which in turn would become the ideal activity.
A good gardener is one who does the cleaning of the field regularly and uproots the weeds (unwanted plats). If he does not do that, then the garden would become a forest. Similarly Lord Shiva is a ideal gardener of this world who has the habit of destroying the evils around the world (Bhuvan Bhang).
11) A wise person becomes happy seeing a rose and thinks “how good is this flower, which is spreading its fragrance being surrounded by thorns”. But an ignorant prosecutor would say “one flower and so many thorns! Is this the life, where happiness is little but filled with sorrows”. Thus one who is intellect and knows the Shivatattva (real meaning of Shiva), who leads life with equanimity; ponders that the supreme power who has blossomed the flower, has also created the thorns. The ultimate power that has given birth to happiness has also created the sorrows.
These great men who have attained self-realization i.e have drowned their mind and souls in ShivaTattva (Real meaning of Shiva) are antique and wonderful. But who just observes the physical form of Lord Shiva could celebrate the actual Shivratri by understanding the above meaning of Lord Shiva.
ॐ ॐ गुरूजी ॐ