श्री आसारामायण की कुछ कठिन पंक्तियों के अर्थ
संत सेवा औ’ श्रुति श्रवण, मात पिता उपकारी।
धर्म पुरुष जन्मा कोई, पुण्यों का फल भारी।।
भावार्थः आसुमल के माता-पिता संतसेवा, शास्त्र व सत्संग श्रवण करते थे। वे परोपकारी स्वभाव के थे, अतः दीन-दुःखियों की मदद करते थे। इन महान पुण्यों का ही फल था कि उनके घर परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू जैसे धर्म के मूर्तिमान स्वरूप बालक का जन्म हुआ।
पंडित कहा गुरु समर्थ को, रामदास सावधान।
शादी फेरे फिरते हुए, भागे छुड़ाकर जान।।
भावार्थः समर्थ रामदास स्वामी की शादी का समय था। फेरे लेने की तैयारी हो रही थी, तभी पंडित ने ‘सावधान’ शब्द का तीन बार उच्चारण किया, उसे सुनकर समर्थ ने सोचा कि ‘मैं हमेशा सावधान रहता हूँ फिर भी मुझे पंडित सावधान रहने के लिए कह रहे हैं तो इसमें जरूर कोई रहस्य होगा। उन्हे ख्याल आया कि मेरा लक्ष्य तो ईश्वरप्राप्ति का है। मैं क्यों इस सांसारिक बंधन में पड़ूँ? वे उठे और सीधे जंगल की ओर भागे। पंडित और घरवाले देखते ही रह गये।
इसी तरह जब घरवालों ने पूज्यबापू जी को शादी करने के लिए कहा तो वे विवाह को ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में बाधा समझकर बिना किसी को बताये घर छोड़कर चले गये।
अनश्वर मैं हूँ मैं जानता, सत चित्त हूँ आनन्द।
स्थिति में जीने लगूँ, होवे परमानन्द।।
भावार्थः मैं जानता हूँ कि मैं अनश्वर तथा सत्, चित्त व आनन्द स्वरूप हूँ। अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर जीने लगूँ तभी परमानंद प्राप्त होगा।
भाव ही कारण ईश है, न स्वर्ण काठ पाषाण।
सत चित्त आनंदरूप है, व्यापक हे भगवान।।
ब्रह्मोशान जनार्दन, सारद सेस गणेश।
निराकार साकार है, है सर्वत्र भवेश।।
भावार्थः भावना के कारण ही ईश्वर है न कि स्वर्ण, काठ या पत्थर की प्रतिमा। अर्थात चाहे प्रतिमा सोने, लकड़ी या पत्थर की हो परंतु उसमें ईश्वर की भावना न हो तो व्यक्ति के लिए वह केवल जड़ प्रतिमा है, न कि ईश्वर।
भगवान सत्-चित्त अर्थात् सत्य, चेतन और आनंद स्वरूप हैं, सर्वव्यापक अर्थात् सभी स्थानों में व्याप्त हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश (महादेव), शारदा (माँ सरस्वती), शेष, गणेष आदि का भी अधिष्ठान (उदगम स्थान) वही निराकार परमात्मा है। ये सभी उसी निराकार परमात्मा की सत्ता से ही साकार रूप धारण करते हैं। वह परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है।
आसोज सुद दो दिवस, संवत् बीस इक्कीस।
मध्याह्न ढाई बजे, मिला ईस से ईस।।
भावार्थः संवत 2021 की आस्विन मास की शुक्लपक्ष की द्वितिया के दिन ढाई बजे ईश्वर से ईश्वर का मिलन हुआ अर्थात् गुरु की कृपादृष्टि और संकल्पमात्र से आसुमल (आज बापूजी) अपने निज स्वरूप में जगे।
एक दिन मन उकता गया, किया डीसा से कूच।
आई मौज फकीर की, दिया झौंपड़ा फूँक।।
भावार्थः बात उस समय की है जब पूज्य बापू जी डीसा की कुटीर में साधना करते थे और उस दौरान शाम को नियमित रूप से सत्संग भी करते थे। एक दिन सत्संग समाप्त होने के बाद पूज्यश्री ने सरल हृदय से विनोद में लोगों से पूछाः
"क्यो भाई! संत भी अन्य संसारी लोगों की तरह ही होते हैं न?"
पूज्यश्री के कथन का भावार्थ कोई ठीक-से समझ नहीं पाया। एक उद्दण्ड व्यक्ति ने कहाः
"हाँ, क्या अंतर है? कुछ भी नहीं। दोनों एक ही... एक ही... "
जवाब सुनकर पूज्यश्री कंधे पर से चादर उतार कर मात्र चड्डी (जाँघिया) पहने ही उसी समय अपनी अवधूती मस्ती में वहाँ से चल दिये। संतों-महापुरुषों को किसी व्यक्ति-वस्तु या स्थान का मोह नहीं होता।
बलात ले गए रोते आए
केदारनाथ के दर्शन पाये, लक्षाधिपति आशिष पाये।
पुनि पूजा पुनः संकल्पाये, ईश प्राप्ति आशिष पाये ॥
(पूज्य बापूजी जब केदारनाथ गए तो पुजारी ने उनको लक्षाधिपति {लखपति } होने का आशीर्वाद दिया । पूज्य श्री ने फिर से पूजा करवा के {पुनि पूजा पुनः संकल्पाये } ईश प्राप्ति का आशीष माँगा । )
(पूज्य बापूजी जब केदारनाथ गए तो पुजारी ने उनको लक्षाधिपति {लखपति } होने का आशीर्वाद दिया । पूज्य श्री ने फिर से पूजा करवा के {पुनि पूजा पुनः संकल्पाये } ईश प्राप्ति का आशीष माँगा । )
परम स्वतंत्र पुरुष दर्शाया, जीव गया और शिव को पाया।
मेरे लिए आपकी आज्ञा ईश्वर का आदेश ! _/\_
ॐ ॐ गुरूजी ॐ
Sadho ! thanks for explaining.. om
ReplyDeletehari om , punah dekhne ka kasht kare images have been replaced.hotlinking from fb is dangerous
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